सत्संग—सौरभ—(प्रवचन—तेइसवां)
सारसूत्र:
यावजीवम्पि ते बालो पंडितं पयिरूपासति।
न सो धम्मं दब्बी सूपरसं यथा।।58।।
मुहुत्तमपि चे विज्यू पंडितं पयिरूपासिति।
खिप्पं धम्मं विजानाति जिव्हा सुरपरसं यथा।।59।।
चरंति बाला दुम्मेधा अमित्तेनेव अत्तना।
करन्तो पापकं कम्मं यं कटुकफ्फलं।।60।।
आज सत्संग की कुछ बात करें। इन सूत्रों में सत्संग की ही आधारशिला है। सत्संग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं है। अंधे को जैसे आंख मिल जाए, या गूंगे को जबान; या मुर्दा जैसे जग जाए और जीवित हो जाए, ऐसा सत्संग है। सत्संग का अर्थ है : तुम्हें पता नहीं है; किसी ऐसे का साथ मिल जाए जिसे पता है, तो जैसे तुम्हें ही पता हो गया; तो जैसे तुम्हारे हाथ में अंधेरे में मशाल आ गई।